कुछ तो करना होगा नेपाल का
नीरज नैयर
नेपाल में माओवादी सरकार के गठन के वक्त जैसी आशंकाएं जताई जा रही थीं वो अब सही साबित होती जा रही हैं. नेपाली नेताओं के भाषण और उनकी कार्यशैली में भारत विरोधी अभियान की झलक नजर आने लगी है. माओवादी सरकार के बाशिंदे न केवल भारत के प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाए हुए हैं बल्कि आम जनता में उसके खिलाफ व्यापक माहौल भी तैयार कर रहे हैं. पशुपतिनाथ मंदिर विवाद इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं. दशकों से काठमांडू स्थिति इस मंदिर में भारतीय पुजारी पूजा अर्चना करते आए हैं लेकिन नेपाली प्रधानमंत्री प्रचंड ने इस परंपरा को तोड़ने की कोशिश की. प्रचंड की चाहत थी कि मंदिर में नेपाली पुजारियों को ही पूजा करने का अधिकार मिले. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय मूल के पुजारियों की बर्खास्तगी को अवैध करार देते हुए उनके निर्णय को खारिज कर दिया. माओवादियों को कोर्ट का फैसला रास नहीं आ रहा है. प्रचंड के बयानों में हमेशा से ही भारत के खिलाफ नफरत दिखाई देती रही है. प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस लहजे में उन्होंने संधियों की पुर्नसमीक्षा की बात कही थी उसी से साफ हो गया था कि उनकी मंशा भारत के साथ दोस्त से ज्यादा दुश्मन की तरह पेश आने की है.माओवादियों का झुकाव भारत की अपेक्षा चीन की तरफ अधिक रहा है.
वो शुरू से ही यह कहते आ रहे हैं कि नेपाल की गरीबी का मुख्य कारण भारत है. माओवादी संगठन भारत को नेपाल के पिछडेपन का कारण मानते हैं. पद संभालने के बाद प्रचंड ने अपनी पहली आधिकारिक यात्रा की शुरूआत चीन से की. वो पहले चीन गये उसके बाद भारत आए. जब नेपाल में माओवादी सत्ता संघर्ष में शामिल थे उस वक्त चीन उनको भरपूर सहयोग मिला. चीन माओवादियों के हर अभियान में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्मलित रहा. इस लिहाज से अब वो नेपाल के ज्यादा करीब पहुंच गया है. उसकी योजना नेपाल तक रेल लाइन बिछाने की है. ठीक ऐसी ही शुरूआत उसने तिब्बत के साथ भी की थी और आज तिब्बती पूरी तरह से उसके गुलाम बनकर रह गये हैं. जिसका खामियाजा भारत को भी चुकाना पड़ रहा है. 1950 के दौर में भारत-तिब्बत सीमा पर भारत के महज चंद सैनिक की तैनात हुआ करते थे लेकिन आज वहां सुरक्षा के लिए प्रतिदिन भारी-भरकम रकम खर्च की जा रही है. हालांकि नेपाल की ऐसी कोई बिसात नहीं है कि उसकी ढेड़ी नजर हमारे लिए घातक साबित हो सकती है लेकिन पर्दे के पीछे से उसकी कारगुजारी काफी हद तक हमें प्रभावित कर सकती है. बीते दिनों बिहार में बरपे कोसी के कहर को हल्के में नहीं लिया जा सकता. कहा जा रहा है कि चीन के इशारे पर ही नेपाल कोसी की विकरालता का रुख भारत की तरफ मोड़ दिया. इससे पहले भी बिहार में बाढ़ आई हैं मगर इस बार तबाही का मंजर कुछ ज्यादा ही भयानक था. अभी हाल ही में माओवादी सरकार के एक मंत्री ने सार्वजनिक तौर पर भारत के खिलाफ जिस तरह की भाषाशैली का प्रयोग किया था वो चीन के प्रति उनकी निर्भरता को प्रदर्शित करने के लिए काफी है. वैसे नेपाल का चीन के प्रति लगाव कोई नई बात नहीं है, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि प्रचंड के सत्ता संभालने के बाद उस लगाव में झुकाव अत्याधिक रूप से बढ़ रहा है. राजा महेंद्र के कार्यकाल के दौरान ही नेपाल ने भारत पर से अपनी निर्भरता खत्म कर चीन से अपने संबंधों की पहल शुरू कर दी थी. 1955 में संयुक्त राष्ट्र संगठन की सदस्यता मिलने के बाद उसने भारत की निर्भरता से निकलने के लिए हाथ-पांव मारना तेज कर दिया. नतीजतन 1956 में चीन के साथ उसने एक महत्वपूर्ण समझौते पर हस्ताक्षर किए. इसके बाद 1961 में नेपाल नरेश ने चीन के साथ सीमा समझौता करके चीन के प्रति नजदीकी का आधिकारिक ऐलान कर दिया. इसके पीछे चीन की मंशा नेपाल से भारत की छवि को पूरी तरह मिटाना था. 1962 में भारत से युध्द के बाद चीन ने नेपाल को खास तवाो देना शुरू कर दिया. सामिरक तौर पर उसे नेपाल भारत को कमजोर करने के हथियार के रूप में दिखाई देने लगा. आज मुंबई हमले के बाद जिस तरह से चीन पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है ठीक वैसी ही नीति उसने नेपाल को लेकर अपनाई थी, 1962 के दौर में उसके विदेशमंत्री ने कहा था, नेपाल कई साल से विदेशी आक्रमणकारियों से लड़ता रहा है इसलिए हम नेपाल के राजा को आश्वस्त करना चाहते हैं कि भविष्य में नेपाल पर किसी तरह के विदेशी आक्रमण की स्थिति में चीन सदैव नेपाल के साथ खड़ा होगा. उनका इशारा भारत की तरफ था. 1988 में नेपाल ने बडे पैमाने पर चीन से हथियार खरीदे. यह खरीदारी एक तरह से पूर्व में की गई संधियों के खिलाफ थी. उन संधियों में कहा गया था कि नेपाल अगर अन्य देशों से हथियारों की खरीदेगा तो उसे भारत की स्वीकृति लेनी होगी. बावजूद इसके नेपाल भारत के लिए कभी इतना खतरनाक साबित नहीं हुआ जितना अब होता दिखाई दे रहा है. चीन की पहुंच पाकिस्तान, बर्मा, श्रीलंका आदि देशों तक पहले ही हो गई थी अब उसने नेपाल को भी पूरी तरह से अपने प्रभुत्व में ले लिया है. वो नेपाल के रास्ते हमारे सीने पर सवार होने की रणनीति बना रहा है. सामरिक दृष्टि से नेपाल पर चीन की पकड़ भारत के लिए चिंता का विषय बन गया है. अगर चीन नेपाल को तिब्बत की तरह हजम करने में कामयाब रहा तो फिर उसे रोकना मुश्किल हो जाएगा. लिहाजा इस संभावित खतरे को ध्यान में रखते हुए सरकार को कुछ न कुछ तो करना होगा. ऐसी दीर्घकालीन नीतियां बनानी होगी जिससे नेपाल भारत के साए में अपने को महफूज समझे और चीन से बढ़ती उसकी नजदीकियों पर अंकुश लग सके.
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नेपाल में माओवादी सरकार के गठन के वक्त जैसी आशंकाएं जताई जा रही थीं वो अब सही साबित होती जा रही हैं. नेपाली नेताओं के भाषण और उनकी कार्यशैली में भारत विरोधी अभियान की झलक नजर आने लगी है. माओवादी सरकार के बाशिंदे न केवल भारत के प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाए हुए हैं बल्कि आम जनता में उसके खिलाफ व्यापक माहौल भी तैयार कर रहे हैं. पशुपतिनाथ मंदिर विवाद इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं. दशकों से काठमांडू स्थिति इस मंदिर में भारतीय पुजारी पूजा अर्चना करते आए हैं लेकिन नेपाली प्रधानमंत्री प्रचंड ने इस परंपरा को तोड़ने की कोशिश की. प्रचंड की चाहत थी कि मंदिर में नेपाली पुजारियों को ही पूजा करने का अधिकार मिले. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय मूल के पुजारियों की बर्खास्तगी को अवैध करार देते हुए उनके निर्णय को खारिज कर दिया. माओवादियों को कोर्ट का फैसला रास नहीं आ रहा है. प्रचंड के बयानों में हमेशा से ही भारत के खिलाफ नफरत दिखाई देती रही है. प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस लहजे में उन्होंने संधियों की पुर्नसमीक्षा की बात कही थी उसी से साफ हो गया था कि उनकी मंशा भारत के साथ दोस्त से ज्यादा दुश्मन की तरह पेश आने की है.माओवादियों का झुकाव भारत की अपेक्षा चीन की तरफ अधिक रहा है.
वो शुरू से ही यह कहते आ रहे हैं कि नेपाल की गरीबी का मुख्य कारण भारत है. माओवादी संगठन भारत को नेपाल के पिछडेपन का कारण मानते हैं. पद संभालने के बाद प्रचंड ने अपनी पहली आधिकारिक यात्रा की शुरूआत चीन से की. वो पहले चीन गये उसके बाद भारत आए. जब नेपाल में माओवादी सत्ता संघर्ष में शामिल थे उस वक्त चीन उनको भरपूर सहयोग मिला. चीन माओवादियों के हर अभियान में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्मलित रहा. इस लिहाज से अब वो नेपाल के ज्यादा करीब पहुंच गया है. उसकी योजना नेपाल तक रेल लाइन बिछाने की है. ठीक ऐसी ही शुरूआत उसने तिब्बत के साथ भी की थी और आज तिब्बती पूरी तरह से उसके गुलाम बनकर रह गये हैं. जिसका खामियाजा भारत को भी चुकाना पड़ रहा है. 1950 के दौर में भारत-तिब्बत सीमा पर भारत के महज चंद सैनिक की तैनात हुआ करते थे लेकिन आज वहां सुरक्षा के लिए प्रतिदिन भारी-भरकम रकम खर्च की जा रही है. हालांकि नेपाल की ऐसी कोई बिसात नहीं है कि उसकी ढेड़ी नजर हमारे लिए घातक साबित हो सकती है लेकिन पर्दे के पीछे से उसकी कारगुजारी काफी हद तक हमें प्रभावित कर सकती है. बीते दिनों बिहार में बरपे कोसी के कहर को हल्के में नहीं लिया जा सकता. कहा जा रहा है कि चीन के इशारे पर ही नेपाल कोसी की विकरालता का रुख भारत की तरफ मोड़ दिया. इससे पहले भी बिहार में बाढ़ आई हैं मगर इस बार तबाही का मंजर कुछ ज्यादा ही भयानक था. अभी हाल ही में माओवादी सरकार के एक मंत्री ने सार्वजनिक तौर पर भारत के खिलाफ जिस तरह की भाषाशैली का प्रयोग किया था वो चीन के प्रति उनकी निर्भरता को प्रदर्शित करने के लिए काफी है. वैसे नेपाल का चीन के प्रति लगाव कोई नई बात नहीं है, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि प्रचंड के सत्ता संभालने के बाद उस लगाव में झुकाव अत्याधिक रूप से बढ़ रहा है. राजा महेंद्र के कार्यकाल के दौरान ही नेपाल ने भारत पर से अपनी निर्भरता खत्म कर चीन से अपने संबंधों की पहल शुरू कर दी थी. 1955 में संयुक्त राष्ट्र संगठन की सदस्यता मिलने के बाद उसने भारत की निर्भरता से निकलने के लिए हाथ-पांव मारना तेज कर दिया. नतीजतन 1956 में चीन के साथ उसने एक महत्वपूर्ण समझौते पर हस्ताक्षर किए. इसके बाद 1961 में नेपाल नरेश ने चीन के साथ सीमा समझौता करके चीन के प्रति नजदीकी का आधिकारिक ऐलान कर दिया. इसके पीछे चीन की मंशा नेपाल से भारत की छवि को पूरी तरह मिटाना था. 1962 में भारत से युध्द के बाद चीन ने नेपाल को खास तवाो देना शुरू कर दिया. सामिरक तौर पर उसे नेपाल भारत को कमजोर करने के हथियार के रूप में दिखाई देने लगा. आज मुंबई हमले के बाद जिस तरह से चीन पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है ठीक वैसी ही नीति उसने नेपाल को लेकर अपनाई थी, 1962 के दौर में उसके विदेशमंत्री ने कहा था, नेपाल कई साल से विदेशी आक्रमणकारियों से लड़ता रहा है इसलिए हम नेपाल के राजा को आश्वस्त करना चाहते हैं कि भविष्य में नेपाल पर किसी तरह के विदेशी आक्रमण की स्थिति में चीन सदैव नेपाल के साथ खड़ा होगा. उनका इशारा भारत की तरफ था. 1988 में नेपाल ने बडे पैमाने पर चीन से हथियार खरीदे. यह खरीदारी एक तरह से पूर्व में की गई संधियों के खिलाफ थी. उन संधियों में कहा गया था कि नेपाल अगर अन्य देशों से हथियारों की खरीदेगा तो उसे भारत की स्वीकृति लेनी होगी. बावजूद इसके नेपाल भारत के लिए कभी इतना खतरनाक साबित नहीं हुआ जितना अब होता दिखाई दे रहा है. चीन की पहुंच पाकिस्तान, बर्मा, श्रीलंका आदि देशों तक पहले ही हो गई थी अब उसने नेपाल को भी पूरी तरह से अपने प्रभुत्व में ले लिया है. वो नेपाल के रास्ते हमारे सीने पर सवार होने की रणनीति बना रहा है. सामरिक दृष्टि से नेपाल पर चीन की पकड़ भारत के लिए चिंता का विषय बन गया है. अगर चीन नेपाल को तिब्बत की तरह हजम करने में कामयाब रहा तो फिर उसे रोकना मुश्किल हो जाएगा. लिहाजा इस संभावित खतरे को ध्यान में रखते हुए सरकार को कुछ न कुछ तो करना होगा. ऐसी दीर्घकालीन नीतियां बनानी होगी जिससे नेपाल भारत के साए में अपने को महफूज समझे और चीन से बढ़ती उसकी नजदीकियों पर अंकुश लग सके.
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